जो थी कुछ आधी -अधुरी सी
मगर खूबसूरत बड़ी ही
गुलाब पर पड़ी शबनम की बूंदों सी
घटाओं में बिखरी शुआओं सी
दिल में सिमटी दुआओं सी
चमकते सितारों सी
समंदर के किनारों सी
और मैं लिखता ही रहा ..................
माना कुछ शूल भी थे
मगर कमसिन फूल भी थे
वो बादल भी तो काले थे
मगर वो कब बरसने वाले थे
पूनम की रात में , मुझसे वो मिली
चांदनी में भीगी मासूम सी कली
आकर करीब वो पूछने लगी
कहीं आप भी, तन्हा तो नही
और मैं लिखता ही रहा................
जब मेरे सामने वो आई
देखकर चहरे को, बेहोशी-सी छाई
बरसता था नूर
लग रही थी जन्नत की हूर
आफ़ताब सी निगाहें थी उसकी
खुली वादियाँ सी बाहें थी उसकी
मगर होठों पे उसके कोई लाली ना थी
बाल बिखरे से, फूलों की कोई डाली ना थी
मैंने पूछा , क्या जानती हो मुझे
मिले नहीं , फिर भी पहचानती हो मुझे ?
सुनकर मेरी बात , वो हँसने लगी
और मैं लिखता ही रहा ........................
बढ़ा कर हाथ उसने यूँ कहा
तुम चलो साथ मेरे , जाए जहां तक हवा
ये बियाबाँ मंजिल नहीं तुम्हारी
अर्श की बुलंदियां पुकारती है
वो तुम्हारी ही कशिश है
जो रूप मेरा सवारती है
बस, इतना कहा था उसने
आ गई थी वो मेरी समझ में
और मैं लिखता ही रहा ...................
मुड़ के देखा, तो वो चली जा रही थी
बाहें उसकी मुझे बुला रही थी
जानते हो दोस्तों, कौन थी वो
जो मुझसे मिलने आई थी
वो मेरी ही जिन्दगी थी
जो हवाओं में खूशबू लाई थी
और मैं लिखता ही रहा जिन्दगी की वही गजल ।।